बहार बन के मिरे हर नफ़स पे छाई हो
अजब अदा से मिरी ज़िंदगी में आई हो
तुम्हारा हुस्न वो तस्वीर-ए-हुस्न-ए-कामिल है
ख़ुदा ने ख़ास ही लम्हों में जो बनाई हो
शराब है न सहर है मगर ये आलम है
किसी ने जैसे निगाहों से मय पिलाई हो
तिरी तरह ही गुरेज़ाँ है नींद भी मुझ से
क़सम है तेरी जो अब तक क़रीब आई हो
तू उस निगाह से पी वक़्त-ए-मय-कशी 'ताबाँ'
की जिस निगाह पे क़ुर्बान पारसाई हो
ग़ज़ल
बहार बन के मिरे हर नफ़स पे छाई हो
अनवर ताबाँ