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बहार बन के जब से वो मिरे जहाँ पे छाए हैं | शाही शायरी
bahaar ban ke jab se wo mere jahan pe chhae hain

ग़ज़ल

बहार बन के जब से वो मिरे जहाँ पे छाए हैं

निहाल रिज़वी

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बहार बन के जब से वो मिरे जहाँ पे छाए हैं
तजल्लियों की चाँदनी है मकतबों के साए हैं

ठहर ठहर के ख़ुश-गवार इंक़लाब आए हैं
सँभल सँभल के वो मिरे जुनूँ पे मुस्कुराए हैं

हज़ार एहतियात की है लाख ग़म छुपाए हैं
मगर तड़प उठा है दिल वो जब भी याद आए हैं

समझ समझ के बारहा ये बन परे की बात है
फ़रेब इन की मेहरबानियों के हम ने खाए हैं

सहर सहर महक उठी चमन चमन सँवर गया
बहार मुस्कुराई है कि आप मुस्कुराए हैं

जो दिल सजा चुके थे ख़ुद-परस्तियों की अंजुमन
हम उन में जज़्बा-ए-ग़म-ए-जहाँ उभार आए हैं

नक़ाब रुख़ से जब उठी बिखर गईं तजल्लियाँ
लतीफ़ बिजलियाँ गिरी हैं जब वो मुस्कुराए हैं

दयार-ए-तेग़-ओ-दार के जमाल को निखार के
हम अपने ख़ूँ से मक़्तल-ए-वफ़ा सँवार आए हैं

कभी लिबास-ए-नज़्म में कभी ग़ज़ल के रूप में
जो वक़्त की पुकार थे वो गीत हम ने गाए हैं

'निहाल' काएनात में हमें तो ये यक़ीन है
अब आदमी नहीं रहा है आदमी के साए हैं