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बहार आती है लेकिन सर में वो सौदा नहीं होता | शाही शायरी
bahaar aati hai lekin sar mein wo sauda nahin hota

ग़ज़ल

बहार आती है लेकिन सर में वो सौदा नहीं होता

सय्यद अमीन अशरफ़

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बहार आती है लेकिन सर में वो सौदा नहीं होता
हर आहट पर तिरी आवाज़ का धोका नहीं होता

तिरा ग़म हो तो आ जाए सलीक़ा मुस्कुराने का
कि हर आज़ार-ए-जाँ शाइस्ता-ए-दुनिया नहीं होता

निशाँ कुंज-ए-तरब का कोहसार-ए-ग़म से मिलता है
भटक जाता हूँ मैं जब राह में दरिया नहीं होता

यही सूरत तो हर-सू कूचा-ओ-बाज़ार में भी है
जहाँ वहशत बरसती हो वहीं सहरा नहीं होता

इक आईना बहर-सूरत पस-ए-आईना होता है
जो चमके आबगीने में वही चेहरा नहीं होता

उसे ये ख़ुशनुमा दुनिया कभी अच्छी नहीं लगती
किसी मसरफ़ का कार-ए-दीदा-ए-बीना नहीं होता

बहाना तुझ से मिलने का ये तन्हाई ने ढूँडा है
सर-ए-महफ़िल किसी को दीद का यारा नहीं होता

जो दी हैं ने'मतें यारब तो फिर हक़्क़-ए-तसर्रुफ़ दे
नज़र अपनी दिमाग़ अपना है दिल अपना नहीं होता

ज़रा कुछ शग़्ल-ए-नेको-कार भी 'सय्यद-अमीन-अशरफ़'
फ़क़त नाम-ओ-नसब से आदमी अच्छा नहीं होता