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बहार आई कर ऐ बाग़बाँ गुलाब क़लम | शाही शायरी
bahaar aai kar ai baghban gulab qalam

ग़ज़ल

बहार आई कर ऐ बाग़बाँ गुलाब क़लम

पीर शेर मोहम्मद आजिज़

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बहार आई कर ऐ बाग़बाँ गुलाब क़लम
कि लिक्खे वस्फ़-ए-रुख़-ए-यार की किताब क़लम

न खींचे चेहरा-ए-पुर-नूर पर नक़ाब क़लम
करे न काग़ज़-ए-तस्वीर को ख़राब क़लम

जो क़स्द हो रुख़-ए-रौशन के वस्फ़ लिखने का
फ़लक से ले वरक़-ए-माह-ओ-आफ़ताब क़लम

हिकायत-ए-दिल-ए-बे-ताब तूल रखती है
न कर तू लिखने में इतना भी इज़्तिराब क़लम

बयान-ए-ज़ुल्फ़-ए-चलीपा में क़ितआ लिख लिख कर
दिखाए ख़त्त-ए-शिकस्ता का पेच-ओ-ताब क़लम

हुबाब से भी बहुत कम है ज़ीस्त का वक़्फ़ा
हदीस-ए-कश्ती-ए-मय में चले शिताब क़लम

लिखे न आतिश-ए-मय की हिकायतें आगे
जिगर न बादा-कशों के करे कबाब क़लम

शबीह खींचेगा इक गुल के क़द्द-ए-मौज़ूँ की
लिखेगा मिस्रा-ए-शमशाद का जवाब क़लम

हिकायत-ए-शब-ए-हिज्राँ लिखो न ऐ 'आजिज़'
हमारी जान-ए-हज़ीं का न हो अज़ाब क़लम