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बहार आई है फिर वहशत के सामाँ होते जाते हैं | शाही शायरी
bahaar aai hai phir wahshat ke saman hote jate hain

ग़ज़ल

बहार आई है फिर वहशत के सामाँ होते जाते हैं

नसीम भरतपूरी

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बहार आई है फिर वहशत के सामाँ होते जाते हैं
मिरे सीने में दाग़ों के गुलिस्ताँ होते जाते हैं

मुझे बचपन कर के दिल-दही भी होती जाती है
जफ़ाएँ करते जाते हैं पशेमाँ होते जाते हैं

कहाँ जाता है ऐ दिल शिकवा-ए-मेहर-ओ-वफ़ा करने
वहाँ बे-दाद करने के भी एहसाँ होते जाते हैं

'नसीम'-ए-ज़िंदा-दिल मरने लगे हैं ख़ूब-रूयों पर
ग़ज़ब है ऐसे दानिश-मंद नादाँ होते जाते हैं