बहार आई है फिर वहशत के सामाँ होते जाते हैं
मिरे सीने में दाग़ों के गुलिस्ताँ होते जाते हैं
मुझे बचपन कर के दिल-दही भी होती जाती है
जफ़ाएँ करते जाते हैं पशेमाँ होते जाते हैं
कहाँ जाता है ऐ दिल शिकवा-ए-मेहर-ओ-वफ़ा करने
वहाँ बे-दाद करने के भी एहसाँ होते जाते हैं
'नसीम'-ए-ज़िंदा-दिल मरने लगे हैं ख़ूब-रूयों पर
ग़ज़ब है ऐसे दानिश-मंद नादाँ होते जाते हैं

ग़ज़ल
बहार आई है फिर वहशत के सामाँ होते जाते हैं
नसीम भरतपूरी