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बहार आई है क्या क्या चाक जैब-ए-पैरहन करते | शाही शायरी
bahaar aai hai kya kya chaak jaib-e-pairahan karte

ग़ज़ल

बहार आई है क्या क्या चाक जैब-ए-पैरहन करते

इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन

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बहार आई है क्या क्या चाक जैब-ए-पैरहन करते
जो हम भी छूट जाते अब तो क्या दीवाना-पन करते

तसव्वुर उस दहान-ए-तंग का रुख़्सत नहीं देता
जो टुक दम मार सकते हम तो कुछ फ़िक्र-ए-सुख़न करते

नहीं जूँ पंजा-ए-गुल कुछ भी इन हाथों में गीराई
वगरना ये गरेबाँ नज़्र-ए-ख़ूबान-ए-चमन करते

मुसाफ़िर हो के आए हैं जहाँ में तिस पे वहशत है
क़यामत थी अगर हम इस ख़राबा में वतन करते

कोई फ़रहाद जैसे बे-ज़बाँ को क़त्ल करता है
'यक़ीं' हम वाँ अगर होते तो इक-दो बचन करते