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बहार आ कर जो गुलशन में वो गाएँ | शाही शायरी
bahaar aa kar jo gulshan mein wo gaen

ग़ज़ल

बहार आ कर जो गुलशन में वो गाएँ

सख़ी लख़नवी

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बहार आ कर जो गुलशन में वो गाएँ
तो ग़ुंचा हर तरफ़ चुटकी बजाएँ

ये तुम को देख कर गुल फूल जाएँ
कि जामे में न फिर फूले समाएँ

मिले रस्ता तो सू-ए-चर्ख़ जाएँ
कहाँ तक इस ज़मीं पर ख़ाक उड़ाएँ

मिसाल-ए-शम्अ उस पर लौ लगाएँ
सहर तक शाम से आँसू बहाएँ

मिरे मरने से ये अंधेर का सोग
कहो मिस्सी मलें सुर्मा लगाएँ

चमन में उस से हम-चश्मी ये दीदा
तिरी आँखें न नर्गिस फूट जाएँ

ख़ुदा के पास क्या जाएँगे ज़ाहिद
गुनाह-गारों से जब ये बार पाएँ

तरद्दुद फूल का किस वास्ते है
मिरी तुर्बत पे वो तेवरी चढ़ाएँ

मिरे लाशे को कांधा दे के बोले
चलो तुर्बत में अब तुम को सुलाएँ

'सख़ी' रोते ही रोते दम निकल जाए
फ़राग़त हो कहीं गंगा नहाएँ