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बगूलों की सफ़ें किरनों के लश्कर सामने आए | शाही शायरी
bagulon ki safen kirnon ke lashkar samne aae

ग़ज़ल

बगूलों की सफ़ें किरनों के लश्कर सामने आए

इक़बाल माहिर

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बगूलों की सफ़ें किरनों के लश्कर सामने आए
क़दम उठ्ठे जिधर ज़ख़्मों के पत्थर सामने आए

थकन से टूट कर जब ख़्वाब-ए-राहत की तमन्ना की
रिदा-ए-ग़म लिए काँटों के बिस्तर सामने आए

दरीदा बादबाँ कमज़ोर कश्ती रात तूफ़ानी
दहन खोले स्याही के समुंदर सामने आए

तलाश-ए-आब-ए-हैवाँ में जहाँ मेरे क़दम पहुँचे
वहाँ ज़हराब से लबरेज़ साग़र सामने आए

ग़रीब-ए-शहर किस के आस्ताने पर सदा देता
कई घर राह में देखे कई दर सामने आए

मिरे ख़ुद्दार लब पर जब कभी लफ़्ज़-ए-अना आया
मिरी क़ीमत लगाने कीसा-ए-ज़र सामने आए

मिज़ाज ऐसा है कुछ 'माहिर' मुरव्वत आ ही जाती है
कोई शातिर अगर मासूम बन कर सामने आए