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बदनाम हूँ पर आशिक़-ए-बदनाम तुम्हारा | शाही शायरी
badnam hun par aashiq-e-badnam tumhaara

ग़ज़ल

बदनाम हूँ पर आशिक़-ए-बदनाम तुम्हारा

तिलोकचंद महरूम

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बदनाम हूँ पर आशिक़-ए-बदनाम तुम्हारा
नाकाम हूँ पर तालिब-ए-नाकाम तुम्हारा

मैं इस को न बेचूँ एवज़-ए-मुल्क-ए-सुलैमाँ
है सब्त सर-ए-ख़ातिम-ए-दिल नाम तुम्हारा

याँ साग़र-ए-दिल ख़ून-ए-तमन्ना से भरा है
पर बादा-ए-गुलगूँ से वहाँ जाम तुम्हारा

महरूमी-ए-क़िस्मत है मिरी ख़ास वगर्ना
मशहूर-ए-जहाँ है करम-ए-आम तुम्हारा

जचते नहीं नज़रों में मह-ओ-मेहर के जल्वे
रहता है तसव्वुर सहर-ओ-शाम तुम्हारा

तुम जिस से फिरो उस से हो बरगश्ता ज़माना
दम भरने लगी गर्दिश-ए-अय्याम तुम्हारा

ग़फ़लत में कटी जाती है 'महरूम' जवानी
अच्छा नज़र आता नहीं अंजाम तुम्हारा