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बढ़ती जाती है मेरी उस की चाह | शाही शायरी
baDhti jati hai meri uski chah

ग़ज़ल

बढ़ती जाती है मेरी उस की चाह

जोशिश अज़ीमाबादी

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बढ़ती जाती है मेरी उस की चाह
सच है होती है दिल को दिल से राह

उस दहान ओ कमर की मत पूछो
काम करती नहीं किसी की निगाह

मरते हैं इंतिज़ार में उस के
आ भी जाए कहीं वो या-अल्लाह

उस की ज़ुल्फ़-ए-सियह है एक बला
इस बला से ख़ुदा ही देवे पनाह

खींच कर मुझ पे ग़ैर को मारी
आफ़रीं आफ़रीं जज़ाक-अल्लाह

है शब-ए-ज़ुल्फ़ का तमाशाई
क्यूँ न 'जोशिश' का होवे रोज़ सियाह