बढ़ती जाती है मेरी उस की चाह
सच है होती है दिल को दिल से राह
उस दहान ओ कमर की मत पूछो
काम करती नहीं किसी की निगाह
मरते हैं इंतिज़ार में उस के
आ भी जाए कहीं वो या-अल्लाह
उस की ज़ुल्फ़-ए-सियह है एक बला
इस बला से ख़ुदा ही देवे पनाह
खींच कर मुझ पे ग़ैर को मारी
आफ़रीं आफ़रीं जज़ाक-अल्लाह
है शब-ए-ज़ुल्फ़ का तमाशाई
क्यूँ न 'जोशिश' का होवे रोज़ सियाह
ग़ज़ल
बढ़ती जाती है मेरी उस की चाह
जोशिश अज़ीमाबादी