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बढ़ते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद क़दम अज़्म-ए-सफ़र को क्या करूँ | शाही शायरी
baDhte hain KHud-ba-KHud qadam azm-e-safar ko kya karun

ग़ज़ल

बढ़ते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद क़दम अज़्म-ए-सफ़र को क्या करूँ

सालिक लखनवी

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बढ़ते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद क़दम अज़्म-ए-सफ़र को क्या करूँ
ज़ेर-ए-क़दम है कहकशाँ ज़ौक़-ए-नज़र को क्या करूँ

तेज़ है कारवान-ए-वक़्त तिश्ना है जुस्तुजू अभी
रोक लूँ ज़िंदगी कहाँ शाम-ओ-सहर को क्या करूँ

दैर-ओ-हरम के रंग भी देख चुकी निगाह-ए-ज़ीस्त
दिल में तो है वही चुभन आह-ए-सहर को क्या करूँ

आज भी है वही मक़ाम आज भी लब पे उन का नाम
मंज़िल बे-शुमार गाम अपने सफ़र को क्या करूँ

याद किसी की आ गई हो गई धुँदली काएनात
पर्दे में छुप गया कोई दीदा-ए-तर को क्या करूँ

कितनी उमीदों के चराग़ राह में बुझ के रह गए
अपने तो पाँव थक गए शौक़-ए-सफ़र को क्या करूँ

हो गई ज़िंदगी की शाम 'सालिक'-ए-राह थक गए
मंज़िलें दूर हो गईं राह-ए-गुज़र को क्या करूँ