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बढ़ने दे अभी कशमकश-ए-तार-ए-नफ़स और | शाही शायरी
baDhne de abhi kashmakash-e-tar-e-nafas aur

ग़ज़ल

बढ़ने दे अभी कशमकश-ए-तार-ए-नफ़स और

अज़ीज़ तमन्नाई

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बढ़ने दे अभी कशमकश-ए-तार-ए-नफ़स और
ऐ गोश-बर-आवाज़ ज़रा देर तरस और

हम माइल-ए-परवाज़ रहे जितनी लगन से
उठती ही गई उतनी ही दीवार-ए-क़फ़स और

ये आतिश-ए-शौक़ और ये दो-चार फुवारें
ऐ अब्र-ए-सियह-मस्त ज़रा खुल के बरस और

इक क़ाफ़िला-ए-ज़ीस्त बिछड़ जाए तो क्या ग़म
आती है बहुत दूर से आवाज़-ए-जरस और

फ़र्दा में बहारों के निशाँ ढूँडने वालो
क्या होगा ज़माने का चलन अब के बरस और

हम ने जो 'तमन्नाई' बयाबान-ए-तलब में
इक उम्र गुज़ारी है तो दो-चार बरस और