बढ़ी जो हद से तो सारे तिलिस्म तोड़ गई
वो ख़ुश-दिली जो दिलों को दिलों से जोड़ गई
अबद की राह पे बे-ख़्वाब धड़कनों की धमक
जो सो गए उन्हें बुझते जगों में छोड़ गई
ये ज़िंदगी की लगन है कि रत-जगों की तरंग
जो जागते थे उन्ही को ये धुन झिंझोड़ गई
वो एक टीस जिसे तेरा नाम याद रहा
कभी कभी तो मिरे दिल का साथ छोड़ गई
रुका रुका तिरे लब पर अजब सुख़न था कोई
तिरी निगह भी जिसे ना-तमाम छोड़ गई
फ़राज़-ए-दिल से उतरती हुई नदी 'अमजद'
जहाँ जहाँ था हसीं वादियों का मोड़ गई

ग़ज़ल
बढ़ी जो हद से तो सारे तिलिस्म तोड़ गई
मजीद अमजद