बड़े शबाब पे दर्द-ए-फ़िराक़-ए-मस्ती है
न हो शराब तो पहरों घटा बरसती है
न शम्अ' रोती है आ कर न बर्क़ हँसती है
मैं जब से क़ब्र में हूँ बेकसी बरसती है
सुने तो कौन सुने मय-कदे में वाइ'ज़ की
यहाँ वही हैं जिन्हें शग़्ल-ए-मय-परस्ती है
मैं सख़्त-जाँ नहीं ख़ंजर भी तेज़ है लेकिन
निगाह-ए-यास है क़ातिल की तेज़-दस्ती है
भरे हुओं को भरा करते हैं करम वाले
जहाँ है सब्ज़ा घटा भी वहीं बरसती है
ग़लत है ज़ेर-ए-नगीं हो के दा'वा-ए-वुसअ'त
बस एक हल्क़ा-ए-ख़ातम फ़ज़ा-ए-हस्ती है
हज़ार ख़्वाहिश-ए-दिल है मगर न माँगूँगा
सुबू-ए-मय-कदा पर वक़्त-ए-तंगदस्ती है
मैं सुन के आया था आबादी-ए-अदम लेकिन
कोई नज़र नहीं आता ये कैसी बस्ती है
चमन न देख नशेमन को देख ऐ बुलबुल
बहार ही में कभी आग भी बरसती है
जलाऊँ शम्अ' तो आख़िर जला के देखूँ क्या
हर एक रात यहाँ शग़्ल-ए-ग़म-परस्ती है
नहीं है दहर में यार ऐ दम-ज़दन 'साक़िब'
बस एक साँस में तय माजरा-ए-हस्ती है
ग़ज़ल
बड़े शबाब पे दर्द-ए-फ़िराक़-ए-मस्ती है
साक़िब लखनवी