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बड़े शबाब पे दर्द-ए-फ़िराक़-ए-मस्ती है | शाही शायरी
baDe shabab pe dard-e-firaq-e-masti hai

ग़ज़ल

बड़े शबाब पे दर्द-ए-फ़िराक़-ए-मस्ती है

साक़िब लखनवी

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बड़े शबाब पे दर्द-ए-फ़िराक़-ए-मस्ती है
न हो शराब तो पहरों घटा बरसती है

न शम्अ' रोती है आ कर न बर्क़ हँसती है
मैं जब से क़ब्र में हूँ बेकसी बरसती है

सुने तो कौन सुने मय-कदे में वाइ'ज़ की
यहाँ वही हैं जिन्हें शग़्ल-ए-मय-परस्ती है

मैं सख़्त-जाँ नहीं ख़ंजर भी तेज़ है लेकिन
निगाह-ए-यास है क़ातिल की तेज़-दस्ती है

भरे हुओं को भरा करते हैं करम वाले
जहाँ है सब्ज़ा घटा भी वहीं बरसती है

ग़लत है ज़ेर-ए-नगीं हो के दा'वा-ए-वुसअ'त
बस एक हल्क़ा-ए-ख़ातम फ़ज़ा-ए-हस्ती है

हज़ार ख़्वाहिश-ए-दिल है मगर न माँगूँगा
सुबू-ए-मय-कदा पर वक़्त-ए-तंगदस्ती है

मैं सुन के आया था आबादी-ए-अदम लेकिन
कोई नज़र नहीं आता ये कैसी बस्ती है

चमन न देख नशेमन को देख ऐ बुलबुल
बहार ही में कभी आग भी बरसती है

जलाऊँ शम्अ' तो आख़िर जला के देखूँ क्या
हर एक रात यहाँ शग़्ल-ए-ग़म-परस्ती है

नहीं है दहर में यार ऐ दम-ज़दन 'साक़िब'
बस एक साँस में तय माजरा-ए-हस्ती है