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बड़े नादान थे हम रेत को आब-ए-रवाँ समझे | शाही शायरी
baDe nadan the hum ret ko aab-e-rawan samjhe

ग़ज़ल

बड़े नादान थे हम रेत को आब-ए-रवाँ समझे

असअ'द बदायुनी

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बड़े नादान थे हम रेत को आब-ए-रवाँ समझे
खुजूरों के दरख़्तों को घनेरा साएबाँ समझे

चमन में मेरे आँसू थे जिन्हें शबनम कहा सब ने
फ़लक पर मेरी आहें थीं जिन्हें सब कहकशाँ समझे

कभी तुझ को ग़ुबार-ए-रंग में कोई किरन जाना
कभी तुझ को गिरफ़्त-ए-संग में जूए रवाँ समझे

किसी बे-मेहर-सुब्हों को अता की रौशनी हम ने
कई ना मेहरबाँ रातों को भी हम मेहरबाँ समझे

ख़िज़ाँ के शहर में बस मैं बहारों की अलामत था
मिरे ज़ख़्मों को सब फूलों की नाज़ुक पत्तियाँ समझे

सभी को दे रहा था वो दुआ जीने की सदियों तक
हमारे शहर के सब लोग उस को बद-ज़बाँ समझे

थके बैठे थे कुछ पंछी लब-ए-दरिया जिन्हें 'असअद'
हम अपनी पर-शिकस्ता ख़्वाहिशों का कारवाँ समझे