EN اردو
बड़े ख़तरे में है हुस्न-ए-गुलिस्ताँ हम न कहते थे | शाही शायरी
baDe KHatre mein hai husn-e-gulistan hum na kahte the

ग़ज़ल

बड़े ख़तरे में है हुस्न-ए-गुलिस्ताँ हम न कहते थे

सैफ़ुद्दीन सैफ़

;

बड़े ख़तरे में है हुस्न-ए-गुलिस्ताँ हम न कहते थे
चमन तक आ गई दीवार-ए-ज़िंदाँ हम न कहते थे

भरे बाज़ार में जिंस-ए-वफ़ा बे-आबरू होगी
उठेगा ए'तिबार-ए-कू-ए-जानाँ हम न कहते थे

उसी महफ़िल उसी बज़्म-ए-वफ़ा के गोशे गोशे में
लुटेगी मस्ती-ए-चश्म-ए-ग़ज़ालाँ, हम न कहते थे

इसी रस्ते में आख़िर वो कड़ी मंज़िल भी आएगी
जहाँ दम तोड़ देगी याद-ए-याराँ हम न कहते थे

ख़िज़ाँ की आहटों पर काँपती हैं पत्तियाँ गुल की
बिखरने को है अब ज़ुल्फ़-ए-बहाराँ हम न कहते थे

दिल-ए-फ़ितरत-शनास आख़िर कहीं यूँही धड़कता है
फ़रेब-ए-हुस्न है जश्न-ए-चराग़ाँ हम न कहते थे