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बदन क़ुबूल है उर्यानियत का मारा हुआ | शाही शायरी
badan qubul hai uryaniyat ka mara hua

ग़ज़ल

बदन क़ुबूल है उर्यानियत का मारा हुआ

सलीम सिद्दीक़ी

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बदन क़ुबूल है उर्यानियत का मारा हुआ
मगर लिबास न पहनेंगे हम उतारा हुआ

वो जिस के सुर्ख़ उजाले में हम मुनव्वर थे
वो दिन भी शब के तआक़ुब में था गुज़ारा हुआ

पनाह-गाह-ए-शजर फ़तह कर के सोया है
मसाफ़तों की थकन से ये जिस्म हारा हुआ

मुझे ज़मीन की परतों में रख दिया किस ने
मैं एक नक़्श था अफ़्लाक पे उभारा हुआ

ख़रीदने के लिए उस को बिक गया ख़ुद ही
मैं वो हूँ जिस को मुनाफ़े में भी ख़सारा हुआ

समा गया मिरे पैरों के आबलों में 'सलीम'
चलो कि आज से ये ख़ार भी हमारा हुआ