बदन पे ख़र्का-ए-तहज़ीब फटने वाला है
जिसे बचा के रखा है बहुत सँभाला है
तुम्हें दिखाऊँ मैं शहर-ए-जदीद का नक़्शा
ये डेढ़ ईंट की मस्जिद है ये शिवाला है
तमाम रैकों में रक्खी हुई किताबों में
तुम्हें ख़बर नहीं फ़िक्र-ओ-नज़र का जाला है
मुहीब अँधेरे में रौशन ख़याल लोगों पर
न जाने अगले ही पल क्या गुज़रने वाला है
जहाँ भी उभरी सदा-ए-ज़मीर-ए-इंसानी
जदीदियत के नक़ीबों ने मार डाला है
फ़ज़ा में उड़ते हुए और लड़खड़ाते हुए
परिंद-ए-ख़स्ता का इक आख़िरी सँभाला है
ग़ज़ल
बदन पे ख़र्का-ए-तहज़ीब फटने वाला है
जमाल ओवैसी