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बदन में रंग भरे लहलहा रहे हैं चराग़ | शाही शायरी
badan mein rang bhare lahlha rahe hain charagh

ग़ज़ल

बदन में रंग भरे लहलहा रहे हैं चराग़

बशीर फ़ारूक़ी

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बदन में रंग भरे लहलहा रहे हैं चराग़
महक रही है फ़ज़ा मुस्कुरा रहे हैं चराग़

उजाले डूबे हुए हैं घने अँधेरों में
अजब सफ़र है बहुत याद आ रहे हैं चराग़

ख़ुदा करे कि उन्हें ये मिलाप रास आए
हवाओं से जो तअ'ल्लुक़ बढ़ा रहे हैं चराग़

सुरूर-ए-लम्स का अब शाम लुत्फ़ उठाएगी
कि दिन गुज़र गया नज़दीक आ रहे हैं चराग़

तमाम रात जले अब ये ख़ौफ़ कैसा है
हवा-ए-सुब्ह से दामन बचा रहे हैं चराग़

वो दे रहे हैं हमें बुझ के भी पयाम-ए-हयात
हमें अँधेरों में जीना सिखा रहे हैं चराग़

उजाले बाँट रहे हैं सियाह रातों को
ये और बात कि ख़ुद को जला रहे हैं चराग़

विसाल-ओ-हिज्र के मौसम गुज़र गए कि 'बशीर'
जला रहे हैं न हम अब बुझा रहे हैं चराग़