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बदन को ख़ाक किया और लहू को आब किया | शाही शायरी
badan ko KHak kiya aur lahu ko aab kiya

ग़ज़ल

बदन को ख़ाक किया और लहू को आब किया

फ़हीम शनास काज़मी

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बदन को ख़ाक किया और लहू को आब किया
फिर इस के ब'अद मुरत्तब नया निसाब किया

थकन समेट के सदियों की जब गिरे ख़ुद पर
तुझे ख़ुद अपने ही अंदर से बाज़याब किया

फिर इस के ब'अद तिरे इश्क़ को लगाया गले
हर एक साँस को अपने लिए अज़ाब किया

अगर वजूद में आ कर उसे न मिलना था
हमें क्यूँ भेज के इस दहर में ख़राब किया

उसी ने चाँद के पहलू में इक चराग़ रखा
उसी ने दश्त के ज़र्रों को आफ़्ताब किया