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बदन को छू लें तिरे और सुर्ख़-रू हो लें | शाही शायरी
badan ko chhu len tere aur surKH-ru ho len

ग़ज़ल

बदन को छू लें तिरे और सुर्ख़-रू हो लें

नितिन नायाब

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बदन को छू लें तिरे और सुर्ख़-रू हो लें
बिखरना ही है तो हम क्यूँ न मुश्कबू हो लें

चलें हैं इश्क़ की करने अगर इबादत हम
बहा के अश्क ज़रा पहले बा-वज़ू हो लें

छुपा के ख़्वाबों ख़यालों को दिल के गोशे में
ज़रा सी देर हक़ीक़त से रू-ब-रू हो लें

बरस गए तो भला आब के सिवा क्या हैं
उन आँसुओं की है क़ीमत की जो लहू हो लें

किताब-ए-दिल को वरक़-दर-वरक़ दिखा देंगे
ज़रा हम आप से तुम और तुम से तू हो लें

न मुझ में मैं ही रहूँ और न तुझ में तू ही रहे
मिलें कुछ ऐसे कि दोनों ही हू-ब-हू हो लें

सफ़र वफ़ा का अधूरा अधूरा है जान लो 'नायाब'
कि जब तलक न दिल-ओ-जाँ लहू लहू हो लें