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बदन को अपनी बिसात तक तो पसारना था | शाही शायरी
badan ko apni bisat tak to pasarna tha

ग़ज़ल

बदन को अपनी बिसात तक तो पसारना था

चंद्र प्रकाश शाद

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बदन को अपनी बिसात तक तो पसारना था
हर एक शय को लहू के रस्ते गुज़ारना था

जिधर फ़सीलों ने उस को मोड़ा ये मुड़ गई है
हवा की मौजों में कोई कौंदा उतारना था

तो क्या सबब सात पानियों को न पी सके हम
ख़ुद अपना डूबा हुआ जज़ीरा उभारना था

मैं अपने अंदर सिमट गया एक लम्हा बन कर
कहीं तो अपने जनम का मंज़र गुज़ारना था

तुम आ गए क्यूँ वजूद की ये बरात ले कर
हमें तो अपनी रगों में शमशान उतारना था

यहाँ से कट कर वो जा के जंगल में सो गई हैं
उसी बहाने हवाओं को खेल हारना था

न ब्रिज टूटे न आँख झपकी न वक़्त बीता
न जाने क्या कुछ बिसरना था क्या बिसारना था