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बदन की आँच से चेहरा निखर गया कैसा | शाही शायरी
badan ki aanch se chehra nikhar gaya kaisa

ग़ज़ल

बदन की आँच से चेहरा निखर गया कैसा

अकबर हैदरी

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बदन की आँच से चेहरा निखर गया कैसा
ये मेरी रूह में शो'ला उतर गया कैसा

हज़ार आँखों से मैं उस का मुंतज़िर और वो
मिरे क़रीब से हो कर गुज़र गया कैसा

ये किस हवा की अना तोड़ती रही हम को
हमारे ख़्वाबों की ख़िर्मन बिखर गया कैसा

दिखा के एक झलक चाँद हो गया ओझल
चढ़ा न था कि ये दरिया उतर गया कैसा

किस आफ़्ताब से तर्सील-ए-नूर जारी है
धनक का रंग ज़मीं पर बिखर गया कैसा

न अपने क़द का न अपने हज्म का है एहसास
ख़ला का दश्त सुबुक-बार कर गया कैसा

किसी गुमान के सहरा में कैसी ख़ाक उड़ी
किसी यक़ीन का परतव उभर गया कैसा

वो तीरा-चश्म कि सूरज से बद-गुमान रहा
ख़ुद अपने साए की आहट से डर गया कैसा