बदन के दोनों किनारों से जल रहा हूँ मैं
कि छू रहा हूँ तुझे और पिघल रहा हूँ मैं
तुझी पे ख़त्म है जानाँ मिरे ज़वाल की रात
तू अब तुलू भी हो जा कि ढल रहा हूँ मैं
बुला रहा है मिरा जामा-ज़ेब मिलने को
तो आज पैरहन-ए-जाँ बदल रहा हूँ मैं
ग़ुबार-ए-राहगुज़र का ये हौसला भी तो देख
हवा-ए-ताज़ा तिरे साथ चल रहा हूँ मैं
मैं ख़्वाब देख रहा हूँ कि वो पुकारता है
और अपने जिस्म से बाहर निकल रहा हूँ मैं
ग़ज़ल
बदन के दोनों किनारों से जल रहा हूँ मैं
इरफ़ान सिद्दीक़ी