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बदन का काम थोड़ा है मगर मोहलत ज़ियादा है | शाही शायरी
badan ka kaam thoDa hai magar mohlat ziyaada hai

ग़ज़ल

बदन का काम थोड़ा है मगर मोहलत ज़ियादा है

नसीम अब्बासी

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बदन का काम थोड़ा है मगर मोहलत ज़ियादा है
सो जो ग़फ़लत ज़ियादा थी वही ग़फ़लत ज़ियादा है

हमें इस आलम-ए-हिज्राँ में भी रुक रुक के चलना है
उन्हें जाने दिया जाए जिन्हें उजलत ज़ियादा है

न जाने कब किसी चिलमन का हम नुक़सान कर बैठें
हमें चेहरा-कुशाई की ज़रा रुख़्सत ज़ियादा है

कभी मैं ख़ुद ज़ियादा हूँ तन-ए-तन्हा की वहदत में
कभी मेरी ज़रूरत से मिरी वहदत ज़ियादा है

तुझे हल्क़ा-ब-हल्क़ा खींचते फिरते हैं दुनिया में
सो ऐ ज़ंजीर-ए-पा यूँ भी तिरी शोहरत ज़ियादा है

ये दिल बाहर धड़कता है ये आँख अंदर को खुलती है
हम ऐसे मरहले में हैं जहाँ ज़हमत ज़ियादा है

मैं क़रनों की तरह बिखरा पड़ा हूँ दोनों वक़्तों में
मिरी जल्वत ज़ियादा है मिरी ख़ल्वत ज़ियादा है

सो हम फ़रियादियों की एक अपनी सफ़ अलग से हो
हमारा मसअला ये है हमें हैरत ज़ियादा है