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बदन है सब्ज़ और शादाब लेकिन रूह प्यासी है | शाही शायरी
badan hai sabz aur shadab lekin ruh pyasi hai

ग़ज़ल

बदन है सब्ज़ और शादाब लेकिन रूह प्यासी है

ख़ुर्शीद तलब

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बदन है सब्ज़ और शादाब लेकिन रूह प्यासी है
मिरे अंदर हज़ारों बाँझ पेड़ों की उदासी है

किसी के दिल से अब जज़्बात का रिश्ता नहीं क़ाएम
हँसी भी मस्लहत-आमेज़ आँसू भी सियासी है

पए-इज़हार कुछ ऐसा नहीं है जो अनोखा हो
हर इक जज़्बा पुराना है हर इक एहसास बासी है

हमें हर वक़्त ये एहसास दामन-गीर रहता है
पड़े हैं ढेर सारे काम और मोहलत ज़रा सी है

सिमट कर रह गई है वुसअत-ए-दुनिया हथेली भर
हमारा मसअला अब भी हमारी ख़ुद-शनासी है

लगा हूँ मैं 'तलब' इस सच को झुटलाने में बरसों से
मैं कल आक़ा था जिस का अब मिरे बेटे की दासी है