बदलने रंग सिखलाए जहाँ को
कहूँ क्या सुर्मा को वसमा को पाँ को
दिया है दीन-ओ-दिल ताब-ओ-तवाँ को
निगह को ज़ुल्फ़ को तिल को दहाँ को
किया फीका मिरे रश्क-ए-चमन ने
समन को यासमन को अर्ग़वाँ को
मिरे ख़ूँ के निशाँ हैं धो चुके शर्म
जबीं को आस्तीं को आसमाँ को
ख़िराम-ए-मह-विशाँ चक्कर में लाए
ज़माना को ज़मीं को आसमाँ को
तिलिस्म सनअ'त बेचूँ है देखो
कफ़ल को साक़ को मू-ए-मियाँ को
लब-ए-नोशीं ने सिखलाई हलावत
शकर को शहद को क़ंद-ए-कलाँ को
किया रू-पोश शर्म-ए-रू-ए-बुत ने
जिनाँ को चश्मा-ए-हैवाँ को जाँ को
कहाँ हैं अहल-ए-फ़न लाऊँ कहाँ से
'नज़ीरी' को 'ज़ुहूरी' को 'बयाँ' को
ग़ज़ल
बदलने रंग सिखलाए जहाँ को
बयान मेरठी