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बदल के रख देंगे ये तसव्वुर कि आदमी का वक़ार क्या है | शाही शायरी
badal ke rakh denge ye tasawwur ki aadmi ka waqar kya hai

ग़ज़ल

बदल के रख देंगे ये तसव्वुर कि आदमी का वक़ार क्या है

बाक़र मेहदी

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बदल के रख देंगे ये तसव्वुर कि आदमी का वक़ार क्या है
ख़ला में वो चाँद नाचता है ज़माँ मकाँ का हिसार क्या है

बहक गए थे सँभल गए हैं सितम की हद से निकल गए हैं
हम अहल-ए-दिल ये समझ गए हैं कशाकश-ए-रोज़गार क्या है

अभी न पूछो कि लाला-ज़ारों से उठ रहा है धुआँ वो कैसा
मगर ये देखो कि फूल बनने का आरज़ू-मंद ख़ार क्या है

वही बने दुश्मन-ए-तमन्ना जिन्हें सिखाया था हम ने जीना
अगर ये पूछें तो किस से पूछें कि दोस्ती का शिआ'र क्या है

कभी है शबनम कभी शरारा फ़लक से टूटा तो एक तारा
ग़म-ए-मोहब्बत के राज़दारो ये गौहर-ए-आबदार क्या है

बहार की तुम नई कली हो अभी अभी झूम कर खिली हो
मगर कभी हम से यूँही पूछो कि हसरतों का मज़ार क्या है

ब-ईं तबाही दिखाए हम ने वो मो'जिज़े आशिक़ी के तुम को
ब-ईं अदावत कभी न कहना कि आप सा ख़ाकसार क्या है

बने कोई इल्म ओ फ़न का मालिक कि मैं हूँ राह-ए-वफ़ा का सालिक
नहीं है शोहरत की फ़िक्र 'बाक़र' ग़ज़ल का इक राज़दार क्या है