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बदल गई है कुछ ऐसी हवा ज़माने की | शाही शायरी
badal gai hai kuchh aisi hawa zamane ki

ग़ज़ल

बदल गई है कुछ ऐसी हवा ज़माने की

नज़ीर सिद्दीक़ी

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बदल गई है कुछ ऐसी हवा ज़माने की
कि आम हो गई आदत नज़र चुराने की

ये बात काश समझते सभी चमन वाले
चमन लुटा तो नहीं ख़ैर आशियाने की

उन्हें ख़बर नहीं वो ख़ुद भी आज़माए गए
जिन्हें थी फ़िक्र बहुत मुझ को आज़माने की

कोई कली न रही फिर भी मुस्कुराए बग़ैर
सज़ा अगरचे मुक़र्रर थी मुस्कुराने की

हुआ यही कि वो तकमील तक पहुँच न सका
बहुत लतीफ़ थी तम्हीद जिस फ़साने की

इक आप ही पे नहीं मुनहसिर जनाब-ए-'नज़ीर'
बड़े बड़ों को हवा लग गई ज़माने की