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बदल गई है फ़ज़ा नीले आसमानों की | शाही शायरी
badal gai hai faza nile aasmanon ki

ग़ज़ल

बदल गई है फ़ज़ा नीले आसमानों की

इरफ़ान सिद्दीक़ी

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बदल गई है फ़ज़ा नीले आसमानों की
बहुत दिनों में खुलीं खिड़कियाँ मकानों की

बस एक बार जो लंगर उठे तो फिर क्या था
हवाएँ ताक में थीं जैसे बादबानों की

कोई पहाड़ रुका है कभी ज़मीं के बग़ैर
हर एक बोझ पनह चाहता है शानों की

तो ग़ालिबन वो हदफ़ ही हदों से बाहर था
ये कैसे टूट गईं डोरियाँ कमानों की

जो है वो कल के सवालों के इंतिज़ार में है
ये ज़िंदगी है कि है रात इम्तिहानों की