EN اردو
बदल चुकी है हर इक याद अपनी सूरत भी | शाही शायरी
badal chuki hai har ek yaad apni surat bhi

ग़ज़ल

बदल चुकी है हर इक याद अपनी सूरत भी

शबनम शकील

;

बदल चुकी है हर इक याद अपनी सूरत भी
वो अहद-ए-रफ़्ता का हर ख़्वाब हर हक़ीक़त भी

कुछ उन के काम निकलते हैं दुश्मनी में मिरी
मैं दुश्मनों की हमेशा से हूँ ज़रूरत भी

किसी भी लफ़्ज़ ने थामा नहीं है हाथ मिरा
मैं पढ़ के देख चुकी आख़िरी इबारत भी

ये जिस ने रोक लिया मुझ को आगे बढ़ने से
वो मेरी बे-ग़रज़ी थी मिरी ज़रूरत भी

मिरी शिकस्ता-दिली ही ब-रू-ए-कार आई
वगर्ना वक़्त तो करता नहीं रिआयत भी

मैं अपनी बात किसी से भी कर न पाऊँगी
मुझे तबाह करेगी ये मेरी आदत भी

मैं कैसे बात भला दिल की मान लूँ 'शबनम'
कि उस को मुझ से मोहब्बत भी थी अदावत भी

ये मेरा इज्ज़ कि दिल में उसे उतरने दिया
ये उस का मान कि माँगी नहीं इजाज़त भी