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बड़ा मुख़्लिस हूँ पाबंद-ए-वफ़ा हूँ | शाही शायरी
baDa muKHlis hun paband-e-wafa hun

ग़ज़ल

बड़ा मुख़्लिस हूँ पाबंद-ए-वफ़ा हूँ

अब्दुल्लाह कमाल

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बड़ा मुख़्लिस हूँ पाबंद-ए-वफ़ा हूँ
किसी की सादगी पर रो पड़ा हूँ

मिरी क़ीमत ज़मीन-ओ-आसमाँ है
बहुत अनमोल हूँ फिर भी बिका हूँ

छलकता जाम हूँ फिर भी हूँ प्यासा
मैं अपने आप में इक कर्बला हूँ

न जाने गुफ़्तुगू क्या गुल खिलाए
तुम्हारी ख़ामुशी से जल गया हूँ

किताब-ए-दिल को दीमक लग गई है
तुम्हारा नाम क्या है ढूँढता हूँ

हज़ारों दाग़ हैं मेरे बदन पर
न जाने किस के दिल का रास्ता हूँ

'कमाल' इस क़त्ल-गाह-ए-रौशनी में
हज़ारों बार मैं बुझ कर जला हूँ