बड़ा ग़ुरूर है पल भर की नेक-नामी का
रिवाज आम है इस दौर में ग़ुलामी का
अमीर-ए-शहर ने दस्तार छीन ली उस की
सिला अजीब दिया रोज़ की सलामी का
लब-ए-फ़ुरात रहे प्यासे वारिस-ए-ज़मज़म
शिकार अकेला नहीं मैं ही तिश्ना-कामी का
बसारत ऐसी बसीरत नवाज़ दे अल्लाह
हमें सुझाई दे नुक्ता हमारी ख़ामी का
कभी तो आइना चेहरे के रू-ब-रू आए
कभी तो लम्हा मयस्सर हो ख़ुद-कलामी का
'फ़िराक़' हो गए पत्थर हमारे दोनों पाँव
बड़ा था नाज़ हमें अपनी तेज़-गामी का
ग़ज़ल
बड़ा ग़ुरूर है पल भर की नेक-नामी का
फ़िराक़ जलालपुरी