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बद-ज़न हैं अहल-ए-काबा मुझ दैर-आश्ना से | शाही शायरी
bad-zan hain ahl-e-kaba mujh dair-ashna se

ग़ज़ल

बद-ज़न हैं अहल-ए-काबा मुझ दैर-आश्ना से

मुबारक अज़ीमाबादी

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बद-ज़न हैं अहल-ए-काबा मुझ दैर-आश्ना से
कहते हैं मुझ को काफ़िर फ़रियाद है ख़ुदा से

बेदाद मोहतसिब की फ़रियाद है ख़ुदा से
बरसे शराब घर घर मय-ख़्वार की दुआ से

चितवन बदल रही है नाम आ गया वफ़ा का
तेवर बिगड़ रहे हैं अफ़साना-ए-वफ़ा से

हम क्यूँ तुम्हें बताएँ हम क्यूँ तुम्हें जताएँ
रोज़-ए-जज़ा न जाने माँगेंगे क्या ख़ुदा से

वो पूछते हैं मुझ से कैसे हो तुम 'मुबारक'
मैं कह रहा हूँ अच्छा सरकार की दुआ से