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बद-गुमाँ मुझ से न ऐ फ़स्ल-ए-बहाराँ होना | शाही शायरी
bad-guman mujhse na ai fasl-e-bahaaran hona

ग़ज़ल

बद-गुमाँ मुझ से न ऐ फ़स्ल-ए-बहाराँ होना

नरेश कुमार शाद

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बद-गुमाँ मुझ से न ऐ फ़स्ल-ए-बहाराँ होना
मेरी आदत है ख़िज़ाँ में भी गुल-अफ़शाँ होना

मेरे ग़म को भी दिल-आवेज़ बना देता है
तेरी आँखों से मिरे ग़म का नुमायाँ होना

क्यूँ न प्यार आए उसे अपनी परेशानी पर
सीख ले जो तिरी ज़ुल्फ़ों से परेशाँ होना

मेरे विज्दान ने महसूस किया है अक्सर
तेरी ख़ामोश निगाहों का ग़ज़ल-ख़्वाँ होना

ये तो मुमकिन है किसी रोज़ ख़ुदा बन जाए
ग़ैर मुमकिन है मगर शैख़ का इंसाँ होना

अपनी वहशत की नुमाइश मुझे मंज़ूर न थी
वर्ना दुश्वार न था चाक-गिरेबाँ होना

रहरव-ए-शौक़ को गुमराह भी कर देता है
बाज़ औक़ात किसी राह का आसाँ होना

क्यूँ गुरेज़ाँ हो मिरी जान परेशानी से
दूसरा नाम है जीने का परेशाँ होना

जिन को हमदर्द समझते हो हँसेंगे तुम पर
हाल-ए-दिल कह के न ऐ 'शाद' पशीमाँ होना