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बचपन में इस दरख़्त पे कैसा सितम हुआ | शाही शायरी
bachpan mein is daraKHt pe kaisa sitam hua

ग़ज़ल

बचपन में इस दरख़्त पे कैसा सितम हुआ

मयंक अवस्थी

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बचपन में इस दरख़्त पे कैसा सितम हुआ
जो शाख़ इस की माँ थी वहाँ से क़लम हुआ

मुंसिफ़ हो या गवाह मनाएँगे अपनी ख़ैर
गर फ़ैसला अना से मिरी कुछ भी कम हुआ

इक रौशनी तड़प के ये कहती है बारहा
क्यूँ आसमाँ का नूर घटाओं में ज़म हुआ

यक-लख़्त आ के आज वो मुझ से लिपट गया
जो फ़ासला दिलों में था अश्कों में ज़म हुआ