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बचाओ दामन-ए-दिल ऐसे हम-नशीनों से | शाही शायरी
bachao daman-e-dil aise ham-nashinon se

ग़ज़ल

बचाओ दामन-ए-दिल ऐसे हम-नशीनों से

शमीम करहानी

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बचाओ दामन-ए-दिल ऐसे हम-नशीनों से
मिला के हाथ जो डसते हैं आस्तीनों से

निगार-ए-वक़्त को इतना तो पैरहन दे दो
छुपा ले दीदा-ए-पुर-नम को आस्तीनों से

हमारी फ़िक्र अमानत है सुब्ह-ए-फ़र्दा की
समाँ है दूर का देखो न ख़ुर्द-बीनों से

अब अपने ज़ख़्म-ए-जबीं को छुपा भी ले ऐ दिल
टपक रहा है पसीना कई जबीनों से

तुझे हवा-ए-मुख़ालिफ़ जगा दिया किस ने
बहुत क़रीब था साहिल कई सफ़ीनों से

न जाने मुजरिम-ए-ज़ौक़-ए-नज़र पे क्या गुज़री
भरी थी राह-ए-तमाशा तमाश-बीनों से

सुकूत-ए-वक़्त मुअर्रिख़ है लिख लिया उस ने
जो पत्थरों ने कहा बे-ख़ता जबीनों से

'शमीम' अंजुमन-ए-अहल-ए-ज़र में क्या जाएँ
लहू का रंग झलकता है आबगीनों से