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बाज़ार-ए-ज़िंदगी में जमे कैसे अपना रंग | शाही शायरी
bazar-e-zindagi mein jame kaise apna rang

ग़ज़ल

बाज़ार-ए-ज़िंदगी में जमे कैसे अपना रंग

बशर नवाज़

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बाज़ार-ए-ज़िंदगी में जमे कैसे अपना रंग
हैं मुश्तरी के तौर न ब्योपारियों के ढंग

मुद्दत से फिर रहा हूँ ख़ुद अपनी तलाश में
हर लम्हा लड़ रहा हूँ ख़ुद अपने ख़िलाफ़ जंग

इक नाम लौह-ए-ज़ेहन से मिटता नहीं है क्यूँ
क्यूँ आख़िर इस पे वक़्त चढ़ाता नहीं है रंग

उस से अलग भी उम्र तो कट ही गई मगर
एक एक पल के बोझ से दुखता है अंग अंग

शाख़-ए-निहाल-ए-ज़ेहन पे ख़्वाबों के फूल थे
होता न अपना दस्त-ए-जुनूँ काश ज़ेर-ए-संग

आवाज़ के हिसार में दिल अब भी क़ैद है
माँगे है अब भी पैरहन-ए-लफ़्ज़ हर उमंग

कुछ तजरबा भी अब तो ज़माने का हो गया
कुछ दल के बचपने से भी हम आ गए हैं तंग

कूचा-ब-कूचा फिरते हैं अब इस तरह 'बशर'
भटके है जैसे हाथ से टूटी हुई पतंग