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बाज़ भी आओ याद आने से | शाही शायरी
baz bhi aao yaad aane se

ग़ज़ल

बाज़ भी आओ याद आने से

राशिद आज़र

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बाज़ भी आओ याद आने से
क्या मिलेगा हमें सताने से

ख़ून-ए-दिल से दिए जलाए हैं
हो के गुज़रो ग़रीब-ख़ाने से

कैसी बे-रौनक़ी है महफ़िल में
एक इस के यहाँ न आने से

दर-ए-दिल वा किया तो वो आए
कौन आता है यूँ बुलाने से

तुझ से बिछड़े तो कब ये सोचा था
इस क़दर होंगे बे-ठिकाने से

हम तो हैरान हैं कि क्यूँ हम पर
ज़ुल्म है और हर बहाने से

रहने वाला ही जब न हो 'आज़र'
फ़ाएदा क्या है घर सजाने से