बाज़ भी आओ याद आने से
क्या मिलेगा हमें सताने से
ख़ून-ए-दिल से दिए जलाए हैं
हो के गुज़रो ग़रीब-ख़ाने से
कैसी बे-रौनक़ी है महफ़िल में
एक इस के यहाँ न आने से
दर-ए-दिल वा किया तो वो आए
कौन आता है यूँ बुलाने से
तुझ से बिछड़े तो कब ये सोचा था
इस क़दर होंगे बे-ठिकाने से
हम तो हैरान हैं कि क्यूँ हम पर
ज़ुल्म है और हर बहाने से
रहने वाला ही जब न हो 'आज़र'
फ़ाएदा क्या है घर सजाने से

ग़ज़ल
बाज़ भी आओ याद आने से
राशिद आज़र