बात ये है कि कोई बात पुरानी भी नहीं
और इस ख़ाक में अब कोई निशानी भी नहीं
ये तो ज़ाहिर में तमव्वुज था बला का लेकिन
ये बदन मेरा जहाँ कोई रवानी भी नहीं
या तो इक मौज-ए-बला-ख़ेज़ है मेरी ख़ातिर
या कि मश्कीज़ा-ए-जाँ में कहीं पानी भी नहीं
बात ये है कि सभी भाई मिरे दुश्मन हैं
मसअला ये है कि मैं यूसुफ़-ए-सानी भी नहीं
सच तो ये है कि मिरे पास ही दिरहम कम हैं
वर्ना इस शहर में इस दर्जा गिरानी भी नहीं
सारे किरदार हैं अंगुश्त-ब-दंदाँ मुझ में
अब तो कहने को मिरे पास कहानी भी नहीं
एक बेनाम-ओ-नसब सच मिरा इज़हार हुआ
वर्ना अल्फ़ाज़ में वो सैल-ए-मआ'नी भी नहीं

ग़ज़ल
बात ये है कि कोई बात पुरानी भी नहीं
ख़ालिद कर्रार