बात ये है कि बात कोई नहीं
मैं अकेला हूँ साथ कोई नहीं
अब सुहुलत पे ही क़नाअ'त है
हवस-ए-मुम्किनात कोई नहीं
बरगुज़ीदा है मेरा साया भी
मेरे साए में हाथ कोई नहीं
ख़ौफ़ आए तो खाँस लेता हूँ
यानी फ़ितरत में घात कोई नहीं
एक हद में रखा गया है मुझे
और हद से नजात कोई नहीं
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ग़ज़ल
बात ये है कि बात कोई नहीं
नईम रज़ा भट्टी