बात क्यूँकर बने उम्मीद बर आए क्यूँ कर
नाला पुर-शोर नहीं आह शरर-बार नहीं
आज आते हैं मिरे शिकवों का लेने वो हिसाब
ख़ैर है हाथ में उन के कोई तलवार नहीं
मुझ से नफ़रत सही लज़्ज़त-कश-ए-आज़ार तो हूँ
ग़ैर भी ग़ैर है वो ख़ूगर-ए-आज़ार नहीं
जोश-ए-मस्ती में चले आए कहाँ तुम 'राक़िम'
ये तो मस्जिद है चलो ख़ाना-ए-ख़ु़म्मार नहीं

ग़ज़ल
बात क्यूँकर बने उम्मीद बर आए क्यूँ कर
राक़िम देहलवी