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बात कुछ भी न थी क्यूँ ख़फ़ा हो गया | शाही शायरी
baat kuchh bhi na thi kyun KHafa ho gaya

ग़ज़ल

बात कुछ भी न थी क्यूँ ख़फ़ा हो गया

असग़र शमीम

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बात कुछ भी न थी क्यूँ ख़फ़ा हो गया
जो था अपना मिरा ग़ैर सा हो गया

धूप शिद्दत की थी चल पड़ा राह में
माँ का आँचल मिरा आसरा हो गया

मुझ को मौज-ए-बला से कोई डर नहीं
जब सहारा मिरा नाख़ुदा हो गया

अब तो आँखों से आँसू भी बहते नहीं
ज़ुल्म जब उन का हद से सिवा हो गया

दिल में 'असग़र' के ख़ुशियों की बरसात थी
हँसते हँसते वो क्यूँ ग़म-ज़दा हो गया