बात कुछ भी न थी फ़साना हुआ
मेरी रुस्वाई का बहाना हुआ
थी ये ख़्वाहिश कहेंगे सब कुछ हम
उन के आगे तो लब भी वा न हुआ
रोज़ आती है इक नई आफ़त
दिल मिरा जब से आशिक़ाना हुआ
क्यूँ तड़पता है फिर दिल-ए-मुज़्तर
किस बला का ये फिर निशाना हुआ
तू ने छोड़ा है साथ जब से नदीम
हाए दुश्मन मिरा ज़माना हुआ
मर ही जाना था हम को तो इक रोज़
उन की फ़ुर्क़त मगर बहाना हुआ
आज कहते हैं बाँध कर गठरी
ग़म की 'मग़मूम' फिर रवाना हुआ
ग़ज़ल
बात कुछ भी न थी फ़साना हुआ
गोर बचन सिंह दयाल मग़मूम