बात बे-बात उलझते हो भला बात है क्या
मेरे अंदर की बलाओं से मुलाक़ात है क्या
हम तो उस पस्ती-ए-एहसास पे जीते हैं जहाँ
ये भी मालूम नहीं जीत है क्या मात है क्या
धुँद में डूब गया दिल का मुहद्दब अदसा
कौन बतलाए सर-ए-अर्ज़-ओ-समवात है क्या
दर्द का ग़ार-ए-हिरा दिल में किया है तामीर
मुझ को मालूम नहीं तर्ज़-ए-इबादात है क्या
ऐ मिरे लफ़्ज़ का क़द नापने वाले ये बता
तू जो आया है मुक़ाबिल तिरी औक़ात है क्या
ग़ज़ल
बात बे-बात उलझते हो भला बात है क्या
असग़र आबिद