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बात बे-बात उलझते हो भला बात है क्या | शाही शायरी
baat be-baat ulajhte ho bhala baat hai kya

ग़ज़ल

बात बे-बात उलझते हो भला बात है क्या

असग़र आबिद

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बात बे-बात उलझते हो भला बात है क्या
मेरे अंदर की बलाओं से मुलाक़ात है क्या

हम तो उस पस्ती-ए-एहसास पे जीते हैं जहाँ
ये भी मालूम नहीं जीत है क्या मात है क्या

धुँद में डूब गया दिल का मुहद्दब अदसा
कौन बतलाए सर-ए-अर्ज़-ओ-समवात है क्या

दर्द का ग़ार-ए-हिरा दिल में किया है तामीर
मुझ को मालूम नहीं तर्ज़-ए-इबादात है क्या

ऐ मिरे लफ़्ज़ का क़द नापने वाले ये बता
तू जो आया है मुक़ाबिल तिरी औक़ात है क्या