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बार-ए-दीगर ये फ़लसफ़े देखूँ | शाही शायरी
bar-e-digar ye falsafe dekhun

ग़ज़ल

बार-ए-दीगर ये फ़लसफ़े देखूँ

बकुल देव

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बार-ए-दीगर ये फ़लसफ़े देखूँ
ज़ख़्म फिर से हरे-भरे देखूँ

ये बसीरत अजब बसीरत है
आइनों में भी आइने देखूँ

ज़ावियों से अगर नजात मिले
सारे मंज़र घुले-मिले देखूँ

नज़्म करना है बे-हिसाबी को
लफ़्ज़ सारे नपे-तुले देखूँ

आख़िर आख़िर जो दास्ताँ न बने
अव्वल अव्वल वो वाक़िए देखूँ

दूरियाँ धुँद बन के बिखरी हैं
कुछ क़रीब आ कि फ़ासले देखूँ

एक नश्शा है ख़ुद-नुमाई भी
जो ये उतरे तो फिर तुझे देखूँ

ले गया वो बची-खुची नींदें
ख़्वाब कैसे रहे-सहे देखूँ

रात फैली हुई है मीलों तक
क्या चराग़ों के दाएरे देखूँ