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बाम पर आने लगे वो सामना होने लगा | शाही शायरी
baam par aane lage wo samna hone laga

ग़ज़ल

बाम पर आने लगे वो सामना होने लगा

हसरत मोहानी

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बाम पर आने लगे वो सामना होने लगा
अब तो इज़हार-ए-मोहब्बत बरमला होने लगा

इश्क़ से फिर ख़तरा-ए-तर्क-ए-वफ़ा होने लगा
फिर फ़रेब-ए-हुस्न सरगर्म-ए-अदा होने लगा

क्या कहा मैं ने जो नाहक़ तुम ख़फ़ा होने लगे
कुछ सुना भी या कि यूँही फ़ैसला होने लगा

अब ग़रीबों पर भी साक़ी की नज़र पड़ने लगी
बादा-ए-पस-ख़ुर्दा हम को भी अता होने लगा

मेरी रुस्वाई से शिकवा है ये उन के हुस्न को
अब जिसे देखो वो मेरा मुब्तला होने लगा

याद फिर उस बेवफ़ा की हर घड़ी रहने लगी
फिर उसी का तज़्किरा सुब्ह ओ मसा होने लगा

कुछ न पूछा हाल क्या था ख़ातिर-ए-बेताब का
उन से जब मजबूर हो कर मैं जुदा होने लगा

शौक़ की बेताबियाँ हद से गुज़र जाने लगीं
वस्ल की शब वा जो वो बंद-ए-क़बा होने लगा

कसरत-ए-उम्मीद भी ऐश-आफ़रीं होने लगी
इंतिज़ार-ए-यार भी राहत-फ़ज़ा होने लगा

ग़ैर से मिल कर उन्हें नाहक़ हुआ मेरा ख़याल
मुझ से क्या मतलब भला मैं क्यूँ ख़फ़ा होने लगा

क़ैद-ए-ग़म से तेरे जाँ आज़ाद क्यूँ होने लगी
दाम-ए-गेसू से तिरे दिल क्यूँ रिहा होने लगा

क्या हुआ 'हसरत' वो तेरा इद्दआ-ए-ज़ब्त-ए-ग़म
दो ही दिन में रंज-ए-फ़ुर्क़त का गिला होने लगा