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बाहर का धन आता जाता असल ख़ज़ाना घर में है | शाही शायरी
bahar ka dhan aata jata asal KHazana ghar mein hai

ग़ज़ल

बाहर का धन आता जाता असल ख़ज़ाना घर में है

उबैदुल्लाह अलीम

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बाहर का धन आता जाता असल ख़ज़ाना घर में है
हर धूप में जो मुझे साया दे वो सच्चा साया घर में है

पाताल के दुख वो क्या जानें जो सत्ह पे हैं मिलने वाले
हैं एक हवाला दोस्त मिरे और एक हवाला घर में है

मिरी उम्र के इक इक लम्हे को मैं ने क़ैद किया है लफ़्ज़ों में
जो हारा हूँ या जीता हूँ वो सब सरमाया घर में है

तू नन्हा-मुन्ना एक दिया मैं एक समुंदर अँधियारा
तू जलते जलते बुझने लगा और फिर भी अँधेरा घर में है

क्या स्वाँग भरे रोटी के लिए इज़्ज़त के लिए शोहरत के लिए
सुनो शाम हुई अब घर को चलो कोई शख़्स अकेला घर में है

इक हिज्र-ज़दा बाबुल पियारी तिरे जागते बच्चों से हारी
ऐ शाएर किस दुनिया में है तू तिरी तन्हा दुनिया घर में है

दुनिया में खपाए साल कई आख़िर में खुला अहवाल यही
वो घर का हो या बाहर का हर दुख का मुदावा घर में है