बाग़बाँ जश्न-ए-बहाराँ नहीं होने देते
दीप उल्फ़त के फ़रोज़ाँ नहीं होने देते
ज़हर उल्फ़त का पिलाते हैं बड़े फ़ख़्र के साथ
आप इंसान को इंसाँ नहीं होने देते
ख़ुद-नुमाई में कुछ इस तरह गिरफ़्तार हैं हम
और लोगों को नुमायाँ नहीं होने देते
अक़्ल को शोख़ी-ए-बातिल में फँसाने वाले
क़ल्ब को साहिब-ए-ईमाँ नहीं होने देते
ग़म से निस्बत है जिन्हें ज़ब्त-ए-अलम करते हैं
अश्क को ज़ीनत-ए-दामाँ नहीं होने देते
रूह-ए-अफ़्कार को मेआर अता करते हैं
हम ख़यालात को उर्यां नहीं होने देते
चंद लम्हे वो मिरे सामने रह कर 'अबरार'
चश्म-ए-बेताब को हैराँ नहीं होने देते
ग़ज़ल
बाग़बाँ जश्न-ए-बहाराँ नहीं होने देते
अबरार किरतपुरी