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बाग़-ओ-बुस्ताँ हुए वीरान कि जी जानता है | शाही शायरी
bagh-o-bustan hue viran ki ji jaanta hai

ग़ज़ल

बाग़-ओ-बुस्ताँ हुए वीरान कि जी जानता है

सय्यद अमीन अशरफ़

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बाग़-ओ-बुस्ताँ हुए वीरान कि जी जानता है
सर-ए-दुनिया है वो तूफ़ान कि जी जानता है

और क्या उस के सिवा हासिल रूदाद-ए-जहाँ
ख़ाक-ओ-ख़ूँ दस्त-ओ-गरेबान कि जी जानता है

रोज़-ए-महशर तो न था शाम-ए-मुलाक़ात थी वो
यूँ हुए बे-सर-ओ-सामान कि जी जानता है

माह-तिमसाल था या ख़ंजर-ए-उर्यां कोई
यूँ है पैवस्त-ए-रग-ए-जान कि जी जानता है

दर्द होता तो सर-ए-शाम सँभल भी जाता
दिल है वो लश्कर-ए-अरमान कि जी जानता है

बे-सुकूनी की तलब है नशा-ए-क़ुलज़ुम-ए-जाँ
आब है तिश्ना-ए-हैजान कि जी जानता है

तय कहाँ होती है राह-ए-सफ़र-ए-ना-मा'लूम
ग़म है यूँ दीदा-ए-हैरान कि जी जानता है